UTTARAKHAND NEWS

Big breaking :-कुछ स्वाद बदलने के लिए-हरीश रावत ने कह दी दिल की कई बातें, चुनाव हार से लेकर, मुख्यमंत्री बनने या नहीं बनने तक

——कुछ स्वाद बदलने के लिए—-
कभी-कभी बड़े लोग उपहास में भी बड़ी अर्थपूर्ण बातें कह देते हैं। मैं मैक्स हॉस्पिटल में अपनी चिकित्सा के लिए भर्ती था। आदरणीय श्री भगत सिंह कोश्यारी जी पूर्व मुख्यमंत्री उत्तराखंड मेरी कुशलक्षेम पूछने और बीमारी से लड़ने के लिए उत्साहित करने हेतु पधारे, तो बात-बात में उन्होंने एक सलाह मुझे देने के साथ यह भी कहा कि तिवारी जी हम सब व विपक्ष के लोगों के बड़े मित्र थे। अप्रत्यक्ष तौर पर श्री हेमवती नंदन बहुगुणा जी और हरीश रावत तथा श्री कृष्ण चंद्र पंत जी को छोड़कर और किसी से वो बैर भाव या विरोध भाव नहीं रखते थे। पार्टी में जिस समय मेरा प्रवेश हुआ उस कालखंड में उत्तराखंड की कांग्रेस की राजनीति से देश और उत्तर प्रदेश के आकाश में श्री हेमवती नंदन बहुगुणा जी, श्री के.सी. पंत जी, श्री नारायण दत्त तिवारी जी छाए हुए थे।

 

 

 

विपक्ष में डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी जी भी एक बड़े नाम थे और उनके बाद श्री सोबन सिंह जीना जी की गणना होती थी तो यह स्वाभाविक है कि कांग्रेस के अंदर जो भी व्यक्ति आये उन्होंने आगे बढ़ाने के माध्यम के लिए अपने प्रेरणा स्रोत, मार्गदर्शन, आदि-आदि रूपों में इन तीन ही लोगों का सहारा लिया, राजनीति में यह सहारा बहुत आवश्यक है। कहीं न कहीं राजनीति की अप्रेंटिसशिप ही कह लीजिए उसमें जब तक कोई ज्ञान देने वाला, उत्साह व सहारा देने वाला न हो तो आगे बढ़ना कठिन होता है। कुछ लोग अपवाद हो सकते हैं जो बिना इसके भी आगे निकल जाते हों, लेकिन सामान्य नियम के तौर पर सहारा आवश्यक है। लखनऊ विश्वविद्यालय की पढ़ाई ने मुझे एक बड़ा सुखद सहारा दिया। कांग्रेस के आकाश में छाये हुये इन तीन महापुरुषों के इतर कुछ लोगों से छात्र जीवन काल में मेरा सम्पर्क हुआ और वो लोग प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर पर उभरते हुए और आगे बढ़ते हुये लोग थे, उनमें से कई लोगों का सीधा संपर्क श्री संजय गांधी जी के साथ था ‌और उन लोगों के माध्यम से मैं भी श्री संजय गांधी जी के संपर्क में आया और यह भी एक संयोग था, दैव संयोग ही मैं कहूंगा कि 1970 में लखनऊ में आयी बाढ़ के दौरान जब गांव वापस आया तो संयोगवश ब्लॉक प्रमुख बन गया, मैं उस समय उत्तर प्रदेश में सबसे छोटी उम्र का ब्लॉक प्रमुख था।

 

 

 

 

मेरे सामने ऑप्शन थे कि मैं उत्तर प्रदेश युवा कांग्रेस में जनरल सेक्रेटरी या महाउपाध्यक्ष बनूं। मैंने उसके बजाय अल्मोड़ा युवा कांग्रेस का जिला अध्यक्ष बनना ज्यादा पसंद किया और विश्वविद्यालय कालीन मित्रता के बल पर मैं जिला युवा कांग्रेस अल्मोड़ा का अध्यक्ष भी बन गया बल्कि मेरे अध्यक्ष बनने से हमारे तीनों सम्मानित नेता गण इतने नाराज हुए कि एक-एक बार तीनों ने मुझे हटवाने का प्रयास किया। मगर अनंतोगत्वा प्रियरंदन दास मुंशी, श्री एसपी राणा, डॉ. संजय सिंह जी, श्री वीर बहादुर सिंह जी, श्री जगदंबिका पाल जैसे प्रखर युवा नेताओं के आगे उनकी नहीं चल पाई और मैं युवा कांग्रेस का जिला अध्यक्ष लगभग 10 साल बना रहा। एक तरफ मुझे उपरोक्त महानुभवों की मदद से श्री संजय गांधी जी का सीधा आशीर्वाद प्राप्त हो गया और दूसरी तरफ अपने सहयोगियों की सहायता के बलबूते पर मैं स्थानीय राजनीति में भी एक फैक्टर बन गया, जो मेरी राजनीति के लिए एक्स फैक्टर सिद्ध हुआ और 1980 में “इंदिरा लाओ-देश बचाओ” के गुंजन काल में मैं अल्मोड़ा लोकसभा संसदीय क्षेत्र से लोकसभा का सदस्य चुना गया। प्लेटफार्म था इसलिये ऊपर उठ गया, सहारा था तो खड़ा रह गया और सही निर्णय ले पाया इसलिये स्थानीय राजनीति पर पकड़ बन गई, यह पकड़ आज भी मेरी पूंजी है। आप अंदाज लगा सकते हैं कि श्री गोविंद सिंह कुंजवाल जी और कई बार के नगर पालिका के चेयरमैन श्री प्रकाश जोशी जी, पूर्व विधायक पूरन सिंह माहरा सहित अल्मोड़ा-बागेश्वर के कई ब्लॉक प्रमुख, जिला पंचायत मेंबर, कोऑपरेटिव बैंक के जिला अध्यक्ष मेरे साथ जिला युवा कांग्रेस अल्मोड़ा की इकाई में पदाधिकारी थे। यूं हास्य परिहास में श्री भगत सिंह कोश्यारी जी ने एक ऐसे तथ्य को उघेड़ दिया जिसको मैं निरंतर ढकने का प्रयास करता रहा। श्री संजय गांधी जी जैसा व्यक्तित्व जिस व्यक्ति को नाम लेकर के पुकारता हो, अपनी मेटाडोर या जीप में बैठा कर के प्रदेश के अपने आकस्मिक भ्रमणों पर लेकर के जाता हो और स्वाभाविक है कि हमारे राष्ट्रीय नेतृत्व में उस समय के जो स्थापित नेता थे उन्हें यह सब अच्छा नहीं लगता था। आदरणीय नारायण दत्त तिवारी जी के प्रति इस सत्यता के बावजूद भी मेरे मन में एक बड़ा आदर भाव था। मैं उन्हें अपनी जैसी निम्न मध्यम वर्गीय ग्रामीण पृष्ठभूमि की राजनीति का ध्वज मानता था। मैं हमेशा उनका प्रशंसक रहा और आज भी हूं। श्री तिवारी जी कई मामलों में मेरे प्रेरणा स्रोत थे, मैं उनका अर्जुन नहीं था, लेकिन मैं यह कह सकता हूं कि उनका एकलव्य बनने का जरूर प्रयास किया था, उनसे मैं संसदीय ज्ञान व विधाएं, संसदीय आचार-व्यवहार आदि के कई गुणों को सीखने का निरंतर प्रयास करता था और उनको अपने जीवन में उतारने का भी प्रयास करता रहता था और मैंने इस बात को कभी छिपाया नहीं। मैंने अपने मनोभावों को भी हमेशा तिवारी जी के सामने रखा, क्योंकि यह ज्ञान था, जब पूंजी थी, यह छिपाये छिप नहीं सकती थी!
यह मेरे जीवन का यथार्थ है कि इस सारे प्रकरण में यह भी सत्य है कि जन सेवा और विकास के मोटे सिद्धांतों में एक राय होते हुए भी आम लोगों तक विकास को पहुंचाने के माध्यम व तौर-तरीकों को लेकर सोच और प्रक्रियात्मक एक एक्शन प्लान को लेकर मेरी और तिवारी जी के एप्रोच में बहुत बड़ी भिन्नता थी। तिवारी जी एक ऐसे विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थे जो ज्ञान के बहुत ऊंचे स्तर पर पहुंचे हुये थे उनके बताए हुए ज्ञान से थ्रिसिस तो लिखी जा सकती है, मगर सामान्य लोगों के सामान्य जीवन में जो सामाजिक न्याय पर आधारित हो बड़ा परिवर्तन नहीं लाया जा सकता था। श्री तिवारी जी यूरोपीयन समाजवाद, विशेष तौर पर ब्रिटिश सोशलिस्ट मॉडल से इतने अत्यधिक प्रभावित थे कि जिसको भारत के लिए प्रासंगिक बनाना कठिन काम था। उन पर गांधियन मॉडल जो दुःख, दर्द, घृणा, प्यार और सहिष्णुता सहभागिता पर आधारित था, इसका असर कम दिखाई देता था और मुझ पर इसी गांधीयन सोच का सबसे ज्यादा गहरा असर था और है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को सवारने के सर्वाधिक अवसर श्री तिवारी जी को मिले, वह लंबे समय तक पर्वतीय विकास परिषद, पर्वतीय विकास मंत्री, मुख्यमंत्री और कालांतर में उत्तराखंड राज्य के प्रथम निर्वाचित मुख्यमंत्री रहे, हर बार नई लीपी के साथ उत्तराखंड के भविष्य को लिखने और बांचने का उनका सौभाग्य मिला। कुछ समय की बाध्यता और कुछ दाता की कृपणता, दोनों के कारण मैं मिले हुए अवसर का श्री तिवारी जी की तुलना में मुझे दशांश भी अवसर प्राप्त नहीं हुए और जब अवसर मिला तो अत्यधिक दुर्घर्षपूर्ण विकट स्थिति थी और वह भी केवल ढाई-तीन वर्ष के लिए। मेरे मन और मस्तिष्क में उत्तराखंड को लेकर जो अवधारणा है उसको क्रियान्वित करने के लिए न तो समय अनुकूल था और न अवधि ही प्राप्त थी। जब 2002 में श्री नारायण दत्त तिवारी जी मुख्यमंत्री चुने गये तो मैंने प्रदेश अध्यक्ष के रूप में उनको शपथ ग्रहण समारोह के मंच पर ही बधाई देते हुए राज्य का घोषणा पत्र सौंपा था और उनसे कहा था कि मैं आपको कांग्रेस के पूर्ण बहुमत के साथ इस उत्तराखंडियत के दस्तावेज को क्रियान्वित करने का दायित्व सौंप रहा हूं और मुझे यह कहते हुये खुशी है कि जो राज्यपाल महोदय का पहला अभिभाषण था उसमें उस घोषणा पत्र के बहुत सारे प्रमुख अंशों का समावेश किया गया था। लेकिन 1 साल बाद जब कुछ विषयों को लेकर मेरे और तिवारी जी के मतभेद सामने आने लगे तो कुछ लोगों ने मुझसे पूछा कि क्या यह मतभेद मुख्यमंत्री के पद को लेकर के है ? मैंने कहा मैं यथार्थ से इनकार नहीं करता लेकिन एक बात में अवश्य कहूंगा कि मतभेद कुछ उत्तराखंडियत के बुनियादी सवालों पर तिवारी जी और मेरे दृष्टिकोण में अंतर को लेकर के भी हैं और मैंने बिल्कुल साफ तौर पर कहा था कि श्री तिवारी जी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर थे बल्कि उसके कुलपति और उप कुलपति की योग्यता रखते हुये और उनको प्राइमरी या जूनियर हाईस्कूल के हैड मास्टर के तौर पर काम करने में कुछ दिक्कतें आ रही हैं, मैं उन दिक्कतों के निराकरण में उनकी मदद कर रहा हूं और पार्टी के अंदर एक सशक्त आवाज उठा करके जिनमें से एक सशक्त आवाज़ स्थानीय उद्योगों में 70 प्रतिशत स्थानीय नौजवानों को रोजगार देने के लिए भी सम्मिलित थी। बहरहाल जो हमारे समाचार पत्र होते हैं उनकी हैड लाइनों को बहुधा सत्ता निर्धारित करती है, आज भी कर रही है, बल्कि आज तो बड़ी नग्न तरीके से कर रही है। कांग्रेस में तो थोड़ा पर्दा था, उस समय भी निर्धारित करते थे और इसलिये हमारे मतभेद को कुर्सी के मतभेद के रूप में प्रसारित किया जाता था ताकि दिल्ली को यह आभास हो सके कि हरीश रावत, श्री तिवारी जी को काम करने नहीं दे रहे हैं, जिसका भारी नुक्सान श्री तिवारी जी को भी हुआ और कांग्रेस को भी हुआ। लेकिन पार्टी के अंदर एक और प्रबल पक्ष था जो तिवारी जी के आभामंडल का फायदा उठाकर देहरादून और दिल्ली में अपनी राजनीति को स्थापित करना चाहता था, इस प्रबल वर्ग ने कभी भी श्री तिवारी जी और पार्टी नेतृत्व को वास्तविकता का ज्ञान नहीं होने दिया, इस हिस्से का निरंतर प्रयास था कि जब श्री तिवारी जी जायें तो हरीश रावत न आ पाये। पार्टी के इस हिस्से ने श्री तिवारी जी को उत्तराखंड की विकास की वास्तविकताओं से दूर रखा। यह अलग बात है कि उनमें से एकाध को छोड़कर के बाकी लोगों के जीवन में तो अंगूर आज भी खट्टे ही सिद्ध हो रहे हैं, वो चतुर लोमड़ियां आज भी सत्ता के अंगूर के टपकने की प्रतीक्षा में निरंतर दिखाई देती हैं। हां यह आम बात है। मगर मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि मैं उस समय की सरकार के कुछ बुनियादी निर्णयों को अपने अनुरूप लिवाने में समर्थ हुआ। विधायक गणों का जो समर्थन मुझे प्राप्त था तो उसका मैंने पूर्ण सदुपयोग किया और मैं भगवान का आभारी हूं कि मेरी स्टैंड का लाभ उत्तराखंड और उत्तराखंड के आमजन और कांग्रेस को भी मिला। मगर श्री तिवारी जी अपनी आभा से आभाषित नेतागणों की चतुराई से इतने घिरे हुये थे कि वो 2007 में चुनाव से और धीरे-धीरे कांग्रेस से ही विमुख हो गये‌। मेनिफेस्टो जारी करते वक्त रोते हुए अलविदा-2 जैसे शब्द कहे जो कांग्रेस के लिए अच्छा शगुन नहीं था। श्री तिवारी जी ने बिना परिणामों के संदर्भ में सोचे चुनाव प्रक्रिया के दौरान ही अपना आवास खाली करवाया और उसे प्रचारित भी किया। जिस क्षेत्र ने उन्हें सर्वाधिक बहुमत से जिताया और जिस व्यक्ति ने उनके लिए सीट खाली की। श्री तिवारी जी ने उन्हें भी निराश किया। स्थिति यह पहुंची कि कांग्रेस को उम्मीदवार श्री योगम्बर सिंह बमुश्किल रामनगर से अपनी जमानत बचा पाए। 2002 में जिन लोगों ने मुझे मुख्यमंत्री बनने से रोकने के लिए दिल्ली और देहरादून में कूट रचनाएं की, वह लोग तिवारी जी की भाजपा तक की यात्रा के कारक बने और इन्हीं लोगों ने धूर्तता पूर्ण तरीके से उत्तराखंड की राजनीति के महा योद्धा श्री तिवारी जी को किच्छा विधानसभा क्षेत्र में मेरे खिलाफ रिक्शे में गली-गली, मोहल्ले-मोहल्ले में घुमाया। महानता के इस प्राभव को समय हमेशा याद रखेगा। मगर मैं आज भी इस मत को बहुत दृढ़ता से मानता हूं कि मैं तिवारी जी के लिए बहुत ही बेहतर पूरक था, पार्टी के लिए भी बेहतर पूरक था और आकांक्षाओं के बीच में सामंजस्य स्थापित करना मुझसे ज्यादा देश के इतिहास में शायद ही कोई दूसरा व्यक्ति कर पाएगा! मैंने 2002 में भी किया, मैंने 2012 में भी किया, मगर जो बुनियादी दृष्टिकोण का अंतर था मैं उस पर तब भी खड़ा रहा और आज भी खड़ा हूं। आज उत्तराखंड बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी या उत्तराखंड राज्य आंदोलन खड़ा करने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? जब उत्तर प्रदेश से इतना बड़ा लोकतांत्रिक और साथ-साथ हिंसक आंदोलन भी कैसे प्रारंभ हो गया ? यदि इस सबकी तह में हम जाएंगे तो आपको यह लगेगा कि हरीश रावत जिस सोच के चारों तरफ परिक्रमा कर रहा था वह सोच उस समय भी यथार्थ थी और आज भी यथार्थ है। आज भी इस राज्य के अंदर आपको 30-40 प्रतिशत विचार वान लोग ऐसा कहते हुए मिल जाएंगे कि जिस सपनों के उत्तराखंड की हमने कल्पना की थी, वह सपनों का उत्तराखंड आज भी हमसे दूर है।
क्रमशः….!!

—–कुछ स्वाद बदलने के लिए (पार्ट-2)—-
राजनीति में कुछ प्रखर ढोलची भी चाहिए। मेरा दुर्भाग्य रहा है कि एक अच्छी और स्पष्ट सोच के बावजूद मेरे पास ढोलचियों का अभाव रहा है। यहां तक कि पार्टी के अपने सहयोगी और साथी भी हमारे अच्छे कामों का समुचित प्रचार-प्रसार नहीं कर पाये। हमारी सरकार ने 2014 में आपदा पुनर्वास और पुनर्निर्माण के साथ-साथ राज्य के विकास की दिशा में कुछ मूलभूत परिवर्तन प्रारंभ किये। 2014-15, 16 में लोगों ने हमारी सरकार द्वारा प्रारंभ किये गये ऐसे कुछ लीक से हटकर उठाये गये कदमों का स्वागत भी किया और मैं आज भी निश्चय पूर्वक कहना चाहता हूं कि हमारी सरकार द्वारा उठाये गये ऐसे सभी कदम आज भी उत्तराखंड की समस्याओं के सबसे बड़े समाधान कारक हैं, सत्ता भले ही सत्य को स्वीकार न करे। मुझे इस बात का कष्ट है कि मेरी पार्टी ने भी अपने ही सरकार के निर्णयों का प्रचार-प्रसार नहीं किया। देश के अंदर स्वास्थ्य बीमा योजना प्रारंभ करने वाले तमिलनाडु के साथ हम पहले राज्य थे। एपीएल कार्ड धारकों को सस्ते दाम पर गेहूं-चावल 13 रूपया किलो देने की कार्य नीति पर अमल करने वाला भी उत्तराखंड पहला राज्य था। लोगों को पौष्टिक व सस्ता भोजन मिले हमने चेन्नई की अम्मा भोजनालयों के समकक्ष इन्दिरा अम्मा भोजनालयों का संचालन प्रारंभ किया। शिक्षा प्रणाली में बुनियादी परिवर्तन लाने के लिए हमने नवोदय के पैटर्न पर जवाहर नवोदय, राजीव नवोदय, राजीव अभिनव स्कूल और आदर्श स्कूलों की श्रृंखला को खड़े करने का काम किया। हमने विश्वविद्यालय स्तर पर भी अल्मोड़ा में पहले आवासीय विश्वविद्यालय की स्वीकृति दी और विश्वविद्यालय ने काम प्रारंभ किया जिसे कालांतर में श्री सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय का नाम दे दिया गया और उसके आवासीय स्वरूप को छोड़ दिया गया। देश के अंदर हम पहले राज्य थे जिन्होंने बुजुर्ग सम्मान को आध्यात्मिकता के साथ जोड़ कर मेरे बुजुर्ग-मेरी तीर्थ जैसी योजनाएं प्रारंभ की। बुजुर्गों के समानार्थ 60 वर्ष की उम्र पार करने पर निःशुल्क राज्य परिवहन निगम की बसों में यात्रा की सुविधा दी। पर्यावरण के संरक्षण के लिए सड़क संचार को गांव-गांव तक पहुंचाने के लिए मेरा गांव-मेरी सड़क जैसी योजना को भी संचालित किया। आज दुनिया मोटे अनाजों का गुण गा रही है, 2014 में ऐसा करने वाली उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार पहले सरकार थी। हमारी सरकार ने मोटे अनाजों व दालों के उपयोग और उपभोग को बढ़ाने के लिए इनके उत्पादकों को न्यूनतम् खरीद मूल्य के साथ बोनस भी देना प्रारंभ किया। जल बोनस, मेरा वृक्ष-मेरा धन अर्थात वृक्षारोपण बोनस, दुग्ध बोनस देने के लिए कई नीतियों को क्रियान्वित करने वाला भी उत्तराखंड पहला राज्य था और मैं बड़ा दावा नहीं करना चाहता हूं। आज लगभग 7 वर्ष हो चुके हैं, जब मैं सत्ता से बहुत दूर हूं, मगर मैं एक समालोचक के तौर पर इतना जरुर कहना चाहता हूं कि जो विकास के यथार्थवाद का रास्ता 2014 में दैवीय आपदा के होते हुए भी हमारी सरकार ने चुना था। आगे के लिए भी राज्य के पास यही रास्ता है। आप सत्तारूढ़ पार्टी बदल सकते हैं, मगर समस्याओं के समाधान के लिए राज्य को हमारे ही खींचे मानचित्र पर रंग भरने पड़ेंगे। आप सैकड़ों वाइब्रेंट विलेज घोषित करिये, मगर बेरोजगारी और पलायन जैसी समस्याओं का समाधान आपको कांग्रेस नित योजनाओं में ही ढूंढना पड़ेगा।
यदि मेरे बड़े भाई श्री कोश्यारी जी ने कुछ ऐसा कह ही दिया है तो मैं चर्चा को महरगाड़ी से देहरादून तक तो बढ़ाना चाहूंगा। आज पूरे देश के अंदर सामाजिक पेंशनों का ग्राफ मंगा लीजिये। उत्तराखंड ने हमारे कार्यकाल में प्रत्येक जरूरतमंद नागरिक को चाहे पुरुष हो, महिला हो, सक्षम हो, अक्षम हो, उम्रदराज हो, युवा हो, विकलांग हो प्रत्येक अक्षम को सामाज कल्याण पेंशन का हकदार बनाया और यह तय किया कि हर दो साल बाद महंगाई के अनुरूप पेंशन की राशि को रिवाइज किया जाएगा। कांग्रेस की सरकार ही ऐसी पहली सरकार थी जिसने सृजक वर्ग को चाहे वो किसी भी सृजक वर्ग को चाहे किसी सामाजिक वर्ग का हो, पण्डित, पुरोहित, मौलवी साहिबान, ग्रंथी सहिबान, जगरिये-डंगरिये, शिल्प, कलाकार, पत्रकार, प्रत्येक ऐसे सृजक को सामाजिक पेंशन का हकदार बनाया और उनके लिए सामाजिक सुरक्षा कोषों की स्थापना की ताकि उम्र से पहले कोई बीमार पड़ जाता है या कठिनाई में आ जाता है तो उनकी कठिनाई में राज्य सरकार उनकी मदद कर सके। हमने एक अवधारणा विकसित की थी कि राज्य के नागरिकों का कल्याण, राज्य का सर्वोच्च राज्य धर्म है, राज्य को इस धर्म का निष्ठा पूर्वक पालन करना चाहिए। हमने शहरीकरण को आधुनिक दृष्टिकोण देने के लिए उस समय स्मार्ट सिटी की बात कही, जब स्मार्ट सिटी की यदा-कदा छुट-पुट ही चर्चा हो रही थी, हम इस दिशा में बहुत आगे बढ़ गए थे। हमने देहरादून को एक नई स्मार्ट सिटी देकर उससे अर्जित आय के आधार पर राज्य में 36 तक नये काउंटर मैगनेटिक सिटीज पूरे राज्य के अंदर बनाने का निर्णय लिया था। यूं आज की सरकार भी कभी-2 इस राग को गुनगुना रही है, मगर आगे बढ़ने का कोई प्रयास नहीं हो रहा है। हमने रिवर फ्रंट डेवलपमेंट की दिशा में काम किया, मेट्रो डेवलपमेंट कॉरपोरेशन खड़ा किया, राज्य के अंदर फ्लाई ओवर, टनल, अंडर पासेज, रोप-वेज को आगे बढ़ाने के लिए राज्य अवस्थापना निर्माण निगम का ढांचा भी खड़ा किया। आज इन विषयों पर यदा-कदा कुछ बड़े बयानों के अलावा धरातल पर कुछ दिखाई नहीं दे रहा है।आज तो राज्य मात्र गुजराती फाइनेंशियल कंसोर्टियम द्वारा पोषित योजनाओं को लेकर चल रहा है, राज्य के पास अपनी कोई उत्तराखंडी सोच दिखाई नहीं दे रही है। वनों के विषय में जो एक नेगेटिव धारणा थी और राज्य के अंदर इस नेगेटिव धारणा को बदलने के लिए हमने पर्यटन के विभिन्न आयामों के साथ वन विभाग को जोड़ने के लिए वन निगम की पूंजी से इको फॉरेस्ट डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन का गठन किया। मुझे लगता है कि सरकार ने इस आईडिया की भ्रूण हत्या कर दी है। हमने इस कॉन्सेप्ट को प्रत्येक नागरिक को २५ लीटर स्वस्थ व स्वच्छ जल प्राप्त हो सके इसलिए हमने जल संवर्धन की व्यापक कार्य योजना तैयार की और उसे क्रियान्वित किया। हमारा प्रयास था कि राज्य को एक जल शक्ति के रूप में एक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई जाए। आज भी उसके चारों तरफ कुछ छुट-पुट, छुट-पुट बातें हो रही हैं। मगर कोई संगठित प्रयास नहीं किये जा रहे हैं। हमने ग्राम उद्यमिता और ग्राम कृषि, दोनों का समन्वय स्थापित किया और उसके ड्राइविंग फोर्स के रूप में हमने ग्रामीण शिल्प को, जिसको उत्तराखंडी शिल्प कहा जाता है, उसको सेंट्रल प्वाइंट के रूप में चिन्हित किया। आधुनिक मेसन तैयार हो सके जो दोनों संस्कृतियों का, जो पुरानी भवन शैली और आधुनिकता का समावेश कर सके इस हेतु एक राष्ट्रीय स्तर का संस्थान अल्मोड़ा के गरुड़ाबाज में स्वीकृत किया। हमारे राज्य में कई प्रकार की रेशा प्रजातियां बांस और रिंगाल आदि उपलब्ध है। हमने रेशा शक्ति को पहचान कर इसे आजीविका संवर्धन का हिस्सा बनाया। हमने रेशा डेवलपमेंट बोर्ड के साथ खादी ग्रामोद्योग को जोड़कर के उनको एक क्रय शील पूंजी देकर के उस क्षेत्र को उद्यमिता के एक नये माध्यम के रूप में विकसित किया। आप अंदाज़ लगाइए कि पहाड़ की छोटी गाय और छोटी बकरी पर भी उस समय की उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार ने उसके लिए परियोजनाएं बनाई, हमने एक तरफ गंगा गाय योजना शुरू की तो दूसरी ओर बद्री गाय और बकरी को भी महत्व दिया। दूर दराज के गांव भी दुग्ध उत्पादन का हिस्सा बन सकें उसके लिए ट्रांसपोर्टेशन कॉस्ट को मिनिमाइज करने के लिए हमने कहा कि उनको हम चीज बनाने की ट्रेनिंग देंगे और उत्तराखंड को जैविक चीज और जैविक मीट उत्पादन केंद्र के रूप में विकसित करेंगे और ऐसा नहीं कि केवल कहा, इन सब परियोजनाओं को हमने क्रियान्वित भी किया। किसी न किसी चरण में हमारी सरकार ने छोटी-छोटी हज़ारों परियोजनाओं को लागू किया और आपको आश्चर्य होगा कि किसी भी क्षेत्र को उपेक्षित नहीं रखा। हमने इन छोटी-छोटी योजनाओं का एक व्यापक नेटवर्क खड़ा कर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सामने खड़ी चुनौतियों का समाधान निकाला। राज्य को खेल शक्ति के रूप में खड़ा करने के लिए हमने दो अंतर्राष्ट्रीय और लगभग एक दर्जन राष्ट्रीय स्टेडियम पवेलियंस आदि बनाए हैं और राज्य को एक और स्पोर्ट्स कॉलेज व पर्वतारोहण संस्थान दिया। लगभग 2 लाख अपंजीकृत श्रमिकों को पंजीकृत कर लगभग 300 करोड रुपए का विकास सेस आधारित कोष खड़ा किया और कर्मकारों के लिए दर्जनों कल्याण योजनाओं को क्रियान्वित किया। मुझे कभी-कभी आश्चर्य होता है कि मेरे सहयोगी मंत्री गण जो आज भूतपूर्व मंत्री हैं अपने कार्यकाल में प्रारंभ की गई इन योजनाओं का प्रेस के माध्यम से प्रचार-प्रसार करने में क्यों संकोच बरतते हैं?
एपण को आप किसी से पता करिए कि २०१४ से पहले थोड़ा अल्मोड़ा के अलावा कोई जानता भी था! आज एपण अपनी सहोदर घाघरे, पिछोड़े और जेवरों के साथ राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फलक पर आभा बिखेर रहे हैं। झोड़े, भरनौले, चांचरी, झुमैलो से लेकर के हमने पुराने वाद्य यंत्रों जिनमें वीड़ाई जैसे वाद्ययंत्र सम्मिलित हैं उनको प्रोत्साहन देने के लिए राज्य में दो उत्तराखंडी वाद्य संग्रहालय स्थापित किये। हमारी सरकार ने अपनी परंपराओं के समानार्थ हुड़किया बौल को एक कृषि पद्धति के रूप में मान्यता प्रदान की। मैं यह सब पुराण इसलिए उद्घृत कर रहा हूं ताकि आने वाली संतप्तियां इस तथ्य को समझें कि उत्तराखंड के विकास को उसके अतीत के आध्यात्मिक सांस्कृतिक बौद्धिक गौरव के साथ जोड़कर आजीविका संवर्धन मूलक राज्य के रूप में खड़ा किये जाने का गंभीर प्रयास हुआ। यदि हमको अपने राज्य आंदोलन के सपनों का आम उत्तराखंडी की सोच का राज्य बनना है, एक रोजगार मूलक वास्तविक अर्थों में एक वाइब्रेंट ग्रामीण अर्थव्यवस्था को खड़ा करना है तो कहीं न कहीं हमें 2014 से 2016 तक राज्य के विकास की पुस्तिका में लिखे हुए वाक्यांशों को स्मरण करना पड़ेगा। यह सत्य है मैं राज्य के मुखिया के रूप में कोई उद्भट विद्वान नहीं था। राज्य की तुलना यदि हम शिक्षा से करें तो उस समय राज्य की विकास की शिक्षा प्राइमरी से लेकर के हाई स्कूल स्तर तक थी। समय की पुकार थी कि राज्य अपने विकास बुनियादी मापदंडों के अनुरूप योजनाएं बनाएं और उन्हें क्रियान्वित करे। हिमाचल, सिक्किम ने भी यही किया और इनसे पहले केरल सहित दक्षिण के राज्यों तथा गुजरात ने भी इसी दिशा में कदम उठाये। मुझे ज़िन्दगी भर हमेशा एक बात का मलाल रहेगा कि जिनके लिए यह सब सोचा गया या रचा गया, कुछ करने का प्रयास किया गया, मैं उन तक अपनी समझ को नहीं पहुंचा पाया हूं। पार्टी को जिस सोच का प्रतिपादक बनाया जाना चाहिए था। पार्टी, राज्य सभा, दूसरी सभाओं के झगड़े में उलझकर के रह गई और आज सात साल बाद भी राज्य के बारहवें मुख्यमंत्री से उन्हीं प्रश्नों व समस्याओं का उत्तर व समाधान मांग रहा है, जिन समस्याओं के समाधान के प्रस्तावों को हम 2014-15,16 में आगे बढ़ा रहे थे। मैं भाजपा और भाजपा को नियंत्रित करने वाली आरएसएस को दोष नहीं दूंगा क्योंकि उनकी हमसे बौद्धिक भिन्नता है। राज्य और समाज के विषय में उनकी और हमारी समझ में बुनियादी अंतर देश की आजादी से पहले भी था और आज भी है। हमारी सरकार ने जब उनके सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नारे का मुकाबला स्थानीय संस्कृति वाद की सोच से देना प्रारम्भ किया तो भाजपा और आरएसएस के वैचारिक स्तरों में खलबली मचना स्वाभाविक था। 2016 का केंद्र सरकार का जो कड़ा प्रहार हमारी सरकार पर था, वह इसी खलबली के आधार पर बनी राजनीतक समझ का परिणाम था। मैं एक छोटा सा उदाहरण बताना चाहता हूं कि हमने तीन छुट्टियों को सरकारी कैलेंडर का हिस्सा बनाया और कई स्थानीय त्योहारों को हमने राजकीय पहचान दिलाई जिसमें चैतोला, फूलदेई, उत्तरायणी, घी संक्रांत, परशुराम जयंती आदि सम्मिलित हैं। वो तीन छुट्टियां छठ का महापर्व, करवाचौथ और हरेला की हैं। जब हमने हरेले की छुट्टी का ऐलान किया तो मैंने बड़े गौर से आरएसएस के केंद्रों से आ रही प्रतिक्रिया की जानकारी ली। आरएसएस के एक महत्वपूर्ण प्रचारक हरीश चंद्र रौतेला जी का एक लेख दैनिक समाचार पत्र में छपा था कि जिसमें उन्होंने हरेले की छुट्टी को और हरेले को राजकीय त्योहार के रूप में मनाने को आरएसएस की वैचारिक सोच का हिस्सा बताया और कहा कि हरीश रावत ने तो हमारी नकल की है। नकल-अकल जो भी थी उससे मुझे इस खतरे का आभास हो गया कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा स्थानीय संस्कृति वाद, कला संस्कृति जिसमें खान-पान पहनावा, भोजन आदि सब चीजें हैं, उनसे सत्तारूढ़ गठबंधन घबरा रहा है। क्योंकि विविधतापूर्ण हिंदुस्तान की सोच श्री हेडगेवर, श्री गोलूवाल्कर, श्री भावराव देवरस, श्री सावरकर आदि द्वारा विकसित सोच के बिल्कुल विपरीत थी। हम इस सोच पर प्रहार अब भारत की विविधतापूर्ण बहुलताओं के सशक्त ध्वजवाहक बनकर के ही कर सकते हैं और एक दूसरा रास्ता भी है, वह है संवैधानिक लोकतंत्र आधारित सामाजिक न्याय का, संवैधानिक लोकतंत्र भी इसी बहुलता के चारों तरफ ही खड़ा किया जा सकता है और इसकी आत्मा सामाजिक न्याय है। इसीलिये जब राहुल जी ने अपनी राजस्थान यात्रा के अंतिम चरण में और हरियाणा में प्रवेश के दौरान मोहब्बत की दुकान की चर्चा की तो मेरे मन ने कहा कि हमें आरएसएस और भाजपा के मिथ्यावादिता का सही तोड़ मिल गया है। आज जब सामाजिक न्याय और संवैधानिक सर्वोच्चता का ध्वज लेकर राहुल गांधी पूरे देश में घूम रहे हैं तो लगभग अजेय दिखाई दे रहे हैं। मगर आगे की लड़ाईयां जिला कमिश्नरी और प्रांतों के स्तर पर होगी। उस समय उत्तराखंड के कांग्रेस नेतृत्व को भी 2014 से 2016 तक की अग्रसारित किये गये मानवीय मानकों आधारित विकास के उत्तराखंडी मॉडल जिसको मैं उत्तराखण्डियत के समग्र नाम से पुकारता हूं उसकी ज़रूर याद आयेगी। हम न जाने कहां होंगे मगर बात अफसानों में रहेगी इसका मुझे भरोसा है।
क्रमशः …!!

—-कुछ स्वाद बदलने के लिए (पार्ट-3)—-
संयोग के जीवन में महत्व को आंकना है तो इसके लिए मेरी जीवन गाथा भी एक अच्छा उदहारण हो सकता है। पिताजी की मौत के बाद मामा जी लोगों ने मुझे पहले रामनगर और फिर लखनऊ विश्वविद्यालय पढ़ने के लिए भेजा। वो चाहते थे कि हमारा भांजा सरकारी कर्मचारी बने और अपने भाइयों को भी जिनमें मेरे बाद जो मेरे सहोदर थे और मेरे मामा लोगों के बच्चे उनके लिए पथ प्रदर्शक बने, उन्होंने सोचा कुछ और भांजा कुछ और ही राह पर चल पड़ा, कैसे चल पड़ा इस पर कभी-कभी मुझे खुद बड़ा आश्चर्य होता है। रामनगर में कुछ सामान्य से कुछ असामान्य जैसे गरीबों के संघर्ष का नेतृत्व करने में लोग मेरे संपर्क में आ गये या मैं उनके संपर्क में आ गया, बल्कि यह दूसरा शब्द ज्यादा उचित है और लखनऊ विश्वविद्यालय में भी भले ही मैं छात्र बहुत सीमित अवधि के लिए रहा, तीन साल नियमित छात्र रहा। लेकिन तीन साल के अंदर लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर अड़ोस-पड़ोस में जो संपर्क मंडल बना वह अभूतपूर्व रहा। आप इस तथ्य से अनुमान लगा सकते हैं कि आज की संसद में भी भाजपा से लेकर के समाजवादी पार्टी तक पांच लोग मेरे उस समय के मित्र मंडली के लोग हैं। कोई भी नामचीन पार्टी ऐसी नहीं है जिसके अंदर कोई न कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति उस समय की मेरी मित्र मंडली का सदस्य न रहा हो। यह संयोग है जो बहुत कुछ करवाता है और उस संयोग का परिणाम ही था कि मुझे सरकारी नौकरी के बजाय किसी दूसरे रास्ते पर लेकर के आया और यह संयोग ही था कि ढेर सारे प्रतिभावान भविष्य के गतिमान युवा हमारे मित्र बनते गये और वो मित्रता निरंतर बनी रही और आज भी बनी है। आज रास्ते भले ही जुदा-जुदा हो गए हैं, मगर मित्रता यथावत है। मैं कभी-कभी सोचता हूं कि यदि हम सब एक पार्टी में होते तो अपनी पार्टी के लिए कितनी बड़ी ताकत होती और अपने नेतृत्व के लिए कितना बड़ा सहारा होते मगर जो जहां भी है अपने नेतृत्व के निकट है, यह मेरे लिए परम संतोष की बात है। बस हम सब लोगों में एक जन्म जात विद्रोही थे सी.बी. सिंह एडवोकेट एलएलबी, एलएलएम, एक जन्मजात सत्ता विरोधी और मेरे घनिष्ठतम मित्र थे, 7 महीने 19 दिन लखनऊ केंद्रीय कारागार में हम एक साथ बंद रहे, हॉस्टल में भी बहुधा हम एक ही कमरे में गुजारा करते थे। मैंने बड़ी कोशिश की थी कि सी.बी. को कांग्रेस और कांग्रेस न सही किसी भी राजनीतिक दल में चले जाएं। मैं जानता था उनकी प्रतिभा को उनके अंदर की आग, जो उनके अंदर की आग थी वह उनको आगे रखती, मैं उनको समझाने में सफल नहीं हो पाया और दो साल पहले उनका स्वर्गवास हो गया। मेरे एक इतने ही अभिन्न मित्र पूरनपुर तहसील के शेरपुर गांव के आसिफ मोहम्मद खान नाम से विख्यात थे, वो कांग्रेस से जुड़े लेकिन जीवन के संघर्ष पथ पर कुरूर काल में उनको हमसे छीन लिया। ऐसे ही एक सरदार वैंत सिंह जी थे लखनऊ विश्वविद्यालय में, 6 और 7वें दशक में पढ़ा हुआ कोई भी छात्र-छात्रा, वैंत सिंह नाम से परिचित न हो, संभव नहीं है वह छात्र इंस्टीट्यूशन थे। मैं बार-बार “संयोग” शब्द का उपयोग इसलिये कर रहा हूं अभी जिन दो-तीन दोस्तों का नाम मैंने लिया सी.बी., आसिफ और वैंत सिंह, इन तीनों का मेरे जीवन पर बड़ा गहरा प्रभाव था, जिसको अंतरंग मित्रता शब्द कहा जाता है और अंतरंगता थी। मगर मैं एक का रास्ता नहीं बदल पाया और दूसरे और तीसरे का रास्ता बनाते-बनाते वाहेगुरु और अल्लाह ने ही उनका रास्ता बदल दिया। यदि 1970 में लखनऊ में भयंकर बाढ़ नहीं आई होती तो लखनऊ का सूना पन काट खाने को नहीं दौड़ रहा होता तो मैं गांव नहीं आ पाता, ब्लॉक प्रमुख नहीं बन पाता, एक इंटर कॉलेज में निर्माण के लिए बनी समिति का सचिव नहीं बन पाता, फिर युवा कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं बन पाता तो नियति बहुत सारी चीजों को स्वयं निर्धारित करती है। मेरा रास्ता भी नियति ने निर्धारित कर दिया। तिवारी जी, पंत जी, बहुगुणा जी के आभा मंडल से बाहर राजनीति में आगे बढ़ने की कठिनाइयों के बावजूद भी कोई दैवीय शक्ति थी जो मेरा हाथ पकड़कर आगे लेकर चल रही थी। जितना सुखद आश्चर्य मेरा ब्लॉक प्रमुख बनना आप लोगों के लिए था, इतना ही सुखद आश्चर्य भारत की लोकसभा में चुनाव जीतना भी था, संजय गांधी जी का आकस्मिक निधन मेरे जीवन पथ पर एक मर्मांतक चोट थी, लेकिन नियति ने उतने ही स्नेह से राजीव गांधी जी का संरक्षण मुझको प्रदान किया, जिस व्यक्ति के लिए मोहनरी और ककलासों देखना कठिन होना चाहिए था, वो व्यक्ति युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव, श्रम संगठनों के वरिष्ठ उपाध्यक्ष, कार्यकारी अध्यक्ष, अध्यक्ष, सेवादल के कर्ताधर्ता आदि पदों के साथ सारे हिन्दुस्तान और लगभग एक तिहाई से ज्यादा दुनिया को देखने और समझने का अवसर मिल गया, यह अनुभवशीलता की एक बड़ी भारी पूंजी के साथ मेरे काम आती है। लेकिन जिस समय सब कुछ ठीक चल रहा था, ऐसा लग रहा था कि मैं और ऊंचाइयों की तरफ बढ़ रहा हूं, तो मुझे गढ़ने वाले अल्मोड़ा ने ही मेरी उड़ती पतंग की डोर काट दी, चुनाव हार गया और एक ऐसे व्यक्ति से चुनाव हार गया, हारा बहुत कम वोटों से, 20-22 हजार वोट उस प्रचंड राम लहर के समय कुछ मायने नहीं रखते थे और आश्चर्य होगा कि मुझको हराने वाले व्यक्ति का नाम आज अल्मोड़ा वालों को भी याद नहीं है। मगर मुझे चुनाव में हराने का फॉर्मूला भाजपा को अवश्य मिल गया, भाजपा के इस काम को आगे बढ़ाने में कांग्रेस की कई अदृश्य शक्तियों का संरक्षण और समर्थन मिलता गया और मैं एक बाद एक कई चुनाव हार गया। मेरे एक निकटतम रिश्तेदार श्री बच्ची सिंह रावत जी, जो यूं तो खांठी के आरएसएस व्यक्ति थे उनको मेरे विकल्प के रूप में इन शक्तियों ने खड़ा किया, वह हर चुनाव में हरीश रावत हराओ-बच्ची सिंह जीताओ के कोरस के उम्मीदवार हो गये और उस समय इस कोरस को गाने वालों में बड़ी संख्या में कांग्रेस के लोग हुआ करते थे और उनको किनका संरक्षण प्राप्त था यह आज भी अल्मोड़ा में कोई भी बता सकता है। मगर जब एक रास्ता बंद हो रहा होता है तो दूसरा रास्ता खोलने के लिए भी बहुत सारी शक्तियां काम करने लगती हैं, मुझे ऐसा आभास होता है। एक तरफ डॉ. मुरली मनोहर जोशी जी, श्री नारायण दत्त तिवारी जी, श्री के.सी. पंत जी आदि की एक जुटता की हरीश रावत का विकल्प तो होना ही चाहिए और दूसरी तरफ उत्तराखंड के आठ पर्वतीय जिलों की राजनीति में एक बड़ा परिवर्तन के आने से कांग्रेस कमजोर हुई और उत्तर प्रदेश के साथ में जो शक्तियां सत्ता में आई उनके साथ पर्वतीय जिलों के संबंध कटूतर होते गये और परस्पर अविश्वास बढ़ता गया और जो कि कालांतर में रामपुर तिराहा कांड, मसूरी गोली कांड, खटीमा गोली कांड, देहरादून गोली कांड आदि कई रूपों में कई घटनाओं के साथ आगे बढ़ा, मैं इस दौर में भी पार्टी के साथ खड़ा रहा। लेकिन पार्टी के साथ-साथ मैंने उत्तराखंड के हितों को भी तत्कालिक घटना क्रम के साथ जोड़ने का प्रयास किया, उस समय देश के राष्ट्रीय आकाश में जितने महत्वपूर्ण नेता थे उत्तराखंड में भी समझ रखने वाले उनमें कोई भी नेता ऐसे नहीं थे जिन्होंने उस घटनाक्रम के साथ अपने को स्पष्ट जुड़ाव बनाने का प्रयास किया हो। क्योंकि दूसरी पंक्ति के नेता श्री भगत सिंह कोश्यारी जी, श्री बच्ची सिंह जी, श्री भुवन चंद्र खंडूरी जी, डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक जी, श्री सतपाल, श्री हरिपाल आदि भले ही आंदोलन के साथ किसी न किसी रूप से जुड़े रहे हों, मगर शीर्ष में बैठे हुये डॉ. मुरली मनोहर जोशी जी, श्री के.सी. पंत जी, श्री नारायण दत्त तिवारी जी आदि पूरे घटनाक्रम से अलग रहे। मैंने आलोचना भी सही, गालियां भी खाई, मगर अपना जुड़ाव आंदोलन के साथ उत्तराखंड के अंदर घटित हो रहे एक घटनाक्रम के साथ बनाए रखा, मुझको यह तो कहा जा सकता है कि हरीश रावत ने अपने पार्टी के स्वार्थ को राज्य आंदोलन के साथ जोड़ा, लेकिन कोई यह नहीं कह सकता है कि राज्य आंदोलन से कोई दूरी रखी। मैं स्वयं उस समय शीर्ष पंक्ति का नेता तो नहीं था, मगर कांग्रेस और केंद्र सरकार में मैं बहुत प्रभावशाली स्तिथि में था, कांग्रेस के तत्कालीन समय की पहली और दूसरी पंक्ति के सभी नेताओं से मेरी निकटता थी, राष्ट्रीय परिदृश्य पर भी विपक्ष के स्थापित नेतृत्व से भी मेरी अच्छी खासी निकटता थी और सेवादल के कर्ताधर्ता के रूप में मेरे पास अवसर और मानव शक्ति दोनों उपलब्ध थी जिसका मैंने भरपूर प्रयोग उत्तराखंड के तत्कालिक आंदोलन के राष्ट्रीय स्तर पर ऊपर उठाने में किया। राज्य आंदोलनकारियों की मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक बातचीत करवा कर मैंने अपनी उपयोगिता को बढ़ाया और यह भी एक संयोग है कि 1996 के बाद देश के राजनीतिक घटनाक्रम का राज्य आंदोलन की शक्तियों के मनोबल पर विपरीत असर पड़ा और निराशा में उन्हीं लोगों ने जो मुझसे गहरी नाराजगी रखते थे, उन्होंने मुझे संयुक्त संघर्ष समिति का जब दूसरा जन्म हुआ तो उस जन्म का संयोजक मुझको बनाया, अध्यक्ष श्री दिवाकर भट्ट जी बने और यह भी निर्धारित नहीं किया की दिवाकर भट्ट जी कुछ समय बाद संयुक्त संघर्ष समिति से घोषित और अघोषित रूप से अलग हो गये। लेकिन जो कुछ संघर्ष समित के रूप में हमने जो कार्यक्रम किये उन्होंने एक बार राज्य आंदोलन की मध्य बढ़ती हुई लौ को तेज कर दिया और फिर जो कुछ हुआ कोलकाता के कांग्रेस महाधिवेशन में छोटे राज्यों के पक्ष में प्रस्ताव बनने के बाद एक राष्ट्रीय सर्वानुमति पूरे देश में बन पाई और उसके परिणाम स्वरूप 9 नवंबर, 2000 को “उत्तराखंड” राज्य अस्तित्व में आया। मैं आज जब इन घटनाओं पर कुछ लिख रहा हूं तो मेरा मन मुझसे स्वयं सवाल कर रहा है कि यदि तुम 1991 का अल्मोड़ा से चुनाव जीत जाते लोकसभा का तो राव मंत्रिमंडल में तुम्हारा स्थान निश्चित था, हो सकता है तुम्हारे जीवन की धारा कुछ दूसरी तरफ बदल जाती। यह अच्छा हुआ या बुरा हुआ, यह मैं नहीं जानता। सन् 1999 में मैं बहुत कम वोटों से हारा 10-12 हजार के करीब से हार गया, अटल जी को प्रधानमंत्री बनाने के लड़ाई के आलोक में यह चुनाव अल्मोड़ा ने चाहते हुए भी मुझे लोकसभा सदस्य नहीं बनाया। मैंने सोचा कि अब संसदीय जीवन का रास्ता बंद हो जायेगा लेकिन फिर राज्य बन गया। राज्य बनने के बाद पहले निर्वाचन में कांग्रेस जीत कर आ गई, मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गया, लेकिन राज्यसभा का मेंबर बना दिया। राज्यसभा के सदस्य के रूप में मुझे मंत्री बनाया जाना था। मैंने समय पर न पहुंचने की अपनी असमर्थता जताई और मंत्री बनते-बनते रह गया और उसका परिणाम रहा कि अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र आरक्षित होने के बाद मुझे पार्टी ने हरिद्वार से लड़ा दिया। लोग कहते हैं कि हरिद्वार से कांग्रेस कभी नहीं जीती थी, इसलिये मुझे निपटाने के लिए हरिद्वार भेजा गया था। लेकिन हरिद्वार की जनता को कुछ और मंजूर था। उन्होंने एक विशाल बहुमत से मुझे चुनाव जितवा दिया और केंद्र सरकार में बिन मांगे मोती मिलते गये, 2012 में मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि पार्टी मुझसे कहेगी कि हरीश तुमको 2002 में अवसर नहीं दे पाए, आओ इस समय मौका है पार्टी के पास हम तुमको मुख्यमंत्री बनाते हैं। मगर एक कूट रचना हुई, जिनके पास कोई अनुभव नहीं था संसदीय जीवन का उन्हें मुख्यमंत्री पद से नवाजा गया। मैंने सोचा कि अब दिल्ली की राजनीति में ही रहना है, मगर 2013 में जो त्रासदी उत्तराखंड में आई वह मुझे फिर से उत्तराखंड लेकर के आ गई। आज मैं यह सोचता हूं कि हवाई दुर्घटना के बाद मृत्यु तो निश्चित लग रही थी लेकिन अपंग होकर खिसक-खिसक के मरु, मरने के बजाए मैं आकस्मिक मृत्यु की प्रार्थना कर रहा था तो मैं स्वस्थ होकर के आज आप लोगों के सामने खड़ा हूं, फिर ये भी एक विचित्र संयोग है कि कोरोना के भंयकर संक्रमण के बाद 19 दिन आईसीयू में रहकर मैं दिल्ली से वापस लौट आया और आज जब मुझे सब कुछ स्वस्थ और संघर्षशील दिख रहा था और यह चाहता था कि एक बार पार्टी के विजय पथ के लिए मैं झंडा थाम कर आगे-आगे चलूं तो उस समय एक प्राण घातक सड़क दुर्घटना ने मुझको अंदर तक हिला के रख दिया। शरीर का कोई हिस्सा ऐसा नहीं है जिसमें दुर्घटना का असर न पड़ा हो और यह संयोग ही है जो इसके बावजूद भी मुझे जिंदा खड़े रखा है। देखते हैं यह संयोग कितने दिनों तक मेरे राजनीतिक जीवन पथ की संजीवनी बने रहते हैं! एक आकांक्षा का दीया मुझे हमेशा प्रेरित करता रहेगा, वह आकांक्षा है “उत्तराखंडियत”….!! बहुत पाया-बहुत खोया, मगर उत्तराखंडियत की सोचों को मजधार में छोड़ना बहुत कमजोर पड़ चुके हरीश रावत के लिए संभव नहीं है।
मैं आज इस पल का विश्लेषण इस बात पर अंतरमन से कर रहा हूं कि तिवारी जी के आभामंडल से अलग हटकर चलना भले ही मेरे लिए कष्टदायक रहा हो लेकिन उत्तराखंड और कांग्रेस के लिए कष्टसाध्य नहीं रहा। मैंने पार्टी और पार्टी के अंदर नये लोगों को लाने के लिए बड़ी सार्थक भूमिका बनाई, आप आज की कांग्रेस को देखिये कई लोग हैं जो नामचीन व्यक्ति हैं, जो कांग्रेस की धारा में नहीं थे मगर संयुक्त संघर्ष समिति में मेरे साथ काम करते-करते व कांग्रेस में आए और आज कांग्रेस के लिए सहायक है। श्री प्रताप सिंह बिष्ट जी जिन्हें उक्रांद से लाकर मैंने अपने गृह ब्लॉक से विधानसभा का चुनाव लड़वाया और विधानसभा के सदस्य बने, उससे राज्य आंदोलन की बहुत सारी ताकतें हमारे साथ नीचे के स्तर पर जुड़ी इससे कांग्रेस पार्टी के अंदर एक नये रक्त का संचार हुआ, नये लोग आये। उससे पहले भी आप अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत में देखिये तो कांग्रेस आपको दूसरे क्षेत्रों से कुछ ज्यादा जवान दिखाई देगी और एक अच्छा समन्वय दिखाई देता है। उम्र और युवा उत्साह का मैंने नियोजन पूर्वक बहुत सारे युवाओं की राह कांग्रेस के अंदर तैयार की और मुझे बेहद खुशी है कि आज अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र की कांग्रेस में वो लोग महत्वपूर्ण नाम हैं, आगे के नेतृत्व की संभावनाएं हैं और मुझे आज अपने उस समय के साथी भी याद आ रहे हैं जिनको अपने युवा कांग्रेस के कार्यकाल में जिला स्तर पर पधाधिकारी बनाया था उनमें से श्री पूरन सिंह माहरा जी, श्री गोविंद सिंह कुंजवाल जी, श्री प्रकाश जोशी जी, श्री हरीश अग्रवाल जी, श्री इंद्र सिंह परिहार जी, श्री राम गिरी गोस्वामी जी, श्री बालम सिंह जनौटी जी, श्री लक्ष्मण सिंह माहरा जी, श्री भूपेंद्र सिंह रावत जी, श्री घनश्याम दत्त ममगाई जी, श्री सोहन सिंह रावत, कई ऐसे नाम हैं जिन्होंने अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र की कांग्रेस को लंबे समय तक सेवा दी, ब्लॉक प्रमुख के रूप में, एमएलए के रूप में और आज भी जिला पंचायत के सदस्य और जिला कॉपरेटिव बैंक के अध्यक्ष के रूप में ये सब लोग युवा कांग्रेस की जिला कार्यकारिणी में मेरे साथ पदाधिकारी थे, मैंने निरंतर अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस को झरे से कुछ अलग हटकर गति देने का प्रयास किया और यही प्रयास मैंने हरिद्वार में भी किया। इसलिये अल्मोड़ा के बाद यदि कांग्रेस संगठनात्मक रूप से एक चुनौती देती स्तिथि में कहीं दिखाई दे रही है तो, वह हरिद्वार है। श्री जे.पी. पांडे आज इस चुनौती के वक्त में बहुत याद आ रहे हैं, एक संघर्षशील व्यक्ति थे। जब मैं नैनीताल संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा तो मैंने वहां भी प्रयास किया कि मैं नये लोगों को जोडूं और एक समन्वय बनाऊं। राजनीति के अंदर आप एक ही धारा एक ही सोच से काम नहीं कर सकते आपको अलग-अलग धाराओं के बीच में भी समन्वय बनाना पड़ता है, उनको जोड़ना पड़ता है ताकि पार्टी किसी भी चुनौतीपूर्ण स्तिथि का मुकाबला करने के लिए अपने को खड़ा कर सके। आज मैं देहरादून को लेकर के चिंतित हूं जबकि देहरादून की जड़-जड़ में कांग्रेस है। यदि सबसे मजबूत कांग्रेस कहीं है व्यक्तियों को देखकर, यदि हम व्यक्तियों को अलग-अलग देखते हैं तो कांग्रेस राजनीतिक दल के रूप में देहरादून में भाजपा से भी आगे खड़ी है। मगर समन्वय और पारस्परिक जोड़ के अभाव में सब बिखरा-बिखरा सा लगता हैं। टिहरी तो स्वाभाविक रूप से कांग्रेस का मायका है। हमारे मायके पर यहां की सामाजिक संरचना दिखती है। संसदीय क्षेत्र टिहरी पर तो कांग्रेस हारनी ही नहीं चाहिए, किसी भी स्तिथि में नहीं हारनी चाहिए लेकिन इसी तरीके की समन्वय स्थापित नहीं होने के कारण लड़ाई थोड़ा सा कठिन दिखाई देती है। पौड़ी की राजनीतिक सोच कुछ भिन्न तरीके की है, वहां चातुर्यपूर्ण चयन कांग्रेस को हमेशा कनटेंशन में रख सकता है। देखते हैं आगे संयोग क्या चाहता है ? पार्टी का नेतृत्व क्या चाहता है ? प्रादेशिक नेतृत्व क्या चाहता है? लेकिन जब इस दुर्घटना से उभरने के संघर्ष के लिए मैं खड़ा हूं तो ऐसे समय में मेरा मन मुझसे बार-बार यह कह रहा है कि अपने लिये न सही, अपने परिवार के लिए न सही, लेकिन अपनी पार्टी के लिए कुछ आगे की सोचों, कुछ समन्वय, सामंजस्य और संघर्ष शीलता पैदा करो, इन तीनों का सहारा लेकर अपने साथियों से बातचीत करो ताकि 2024 की पार्टी की राह शुभ हो। समय बहुत कम है, रास्ता बहुत लंबा और कठिन है, फिर भी एक सेवा के रूप में मैं कांग्रेस के लिए अपनी बची-खुची शक्ति को समर्पित कर सकूं।
संयोग रूपी भगवान मेरी मदद करें।

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

न्यूज़ हाइट (News Height) उत्तराखण्ड का तेज़ी से उभरता न्यूज़ पोर्टल है। यदि आप अपना कोई लेख या कविता हमरे साथ साझा करना चाहते हैं तो आप हमें हमारे WhatsApp ग्रुप पर या Email के माध्यम से भेजकर साझा कर सकते हैं!

Click to join our WhatsApp Group

Email: [email protected]

Author

Author: Swati Panwar
Website: newsheight.com
Email: [email protected]
Call: +91 9837825765

To Top